Tuesday 6 January 2015

पिंजरे का पंछी (कविता)




हो स्वतंत्र
उड़ गया
खुले आकाश में
पंख
लहुलुहान हो गये
टकराकर
जंग लगी
लोहे की सलाखों से
रो दिया
विवशता पर
सीमितता पर
भूला था
मै मर्यादित हूं
मेरी कुछ सीमाएं है
हाँ
मै एक पिंजरे का पंछी हूँ !

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